
महाभारत पर स्वामी दयानन्द व आर्यसमाजियों के झूठ
स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं कि – “राजा भोज के राज्य में व्यास जी के नाम से मार्कण्डेय और शिवपुराण किसी ने बनाकर खड़ा किया था। उसका समाचार राजा भोज को होने पर उन पंडितों को हस्तच्छेदन आदि दण्ड दिया और उनसे कहा कि – ‘जो कोई ग्रन्थ बनाए, तो अपने नाम से बनाए, ऋषि-मुनियों के नाम से नहीं।’ यह बात राजा भोज के बनाए संजीवनी नामक ग्रन्थ में लिखी है, जो कि ग्वालियर राज्य के भिण्ड नामक नगर के तिवारी ब्राह्मणों के घर में है।” उसमें स्पष्ट लिखा है कि – व्यास जी ने चार सहस्र चार सौ और उनके शिष्यों ने पाँच सहस्र छह सौ श्लोकयुक्त, अर्थात् दस हजार श्लोकों के प्रमाण का “भारत” बनाया था। महाराजा भोज कहते हैं कि मेरे पिता के समय में पच्चीस और मेरी आधी उम्र में तीस सहस्र श्लोकयुक्त महाभारत का पुस्तक मिलता है। भोज प्रबन्ध में लिखा है कि – “घट्यैकया क्रोशदशैकमश्व: सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या _ _ _”
अब स्वामी दयानन्द का झूठ देखिए। अपनी एक अन्य पुस्तक ‘उपदेश मंजरी’ में स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि – “ग्वालियर में भिण्डनामी नगर में मिश्र लोग रहते हैं, उनके पास संजीवनी नामक पुस्तक है, उसमें महाभारत के विषय में ऐसा लिखा है।”
अब देखिए, पहले सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानन्द लिखते हैं – “उस संजीवनी ग्रन्थ में राजा भोज ने अनेक प्रकार की बातें, पुस्तकों के विषय, और देश के वर्तमान के विषय में इतिहास लिखा है। सो वह संजीवनी ग्रन्थ वटेश्वर के पास होलीपुरा एक गाँव है, उसमें चौबे लोग रहते हैं, वे जानते हैं जिसके पास वह ग्रन्थ है। परन्तु लिखने व देखने को वह पण्डित किसी को नहीं देता, क्योंकि उसमें सत्य बात लिखी है।”
अब आप यहाँ प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि स्वामी दयानन्द अपनी तीन पुस्तकों में भिन्न-भिन्न, विरोधाभासी बात कह रहे हैं। जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है, तो वह भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न बात कर देता है, क्योंकि उसे पूर्व में कहा गया झूठ याद नहीं रहता। अब इसमें सबसे मजेदार बात यह है कि राजा भोज ने कोई संजीवनी नाम का ग्रन्थ लिखा ही नहीं था। न उस समय था और न ही वर्तमान समय में किसी ने आज तक राजा भोज का कोई ऐसा ग्रन्थ देखा है। स्वामी दयानन्द ने अपने झूठ को सत्य सिद्ध करने के लिए यह छल किया था। यहाँ यह सोचने वाली बात है कि स्वामी दयानन्द के अनुसार जिस पण्डित के पास यह ग्रन्थ था, वह किसी को दिखाता न था, तो क्या स्वामी दयानन्द प्रेत बनकर इन बातों को पढ़कर आए थे?
दूसरी मजेदार बात यह है कि स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में भोज प्रबन्ध के जिस श्लोक को लिख रहे हैं, ऐसा कोई श्लोक भोज प्रबन्ध ग्रन्थ में है ही नहीं। भोज प्रबन्ध ग्रन्थ के गौड़ीय और दाक्षिणात्य दो पाठ मिलते हैं, और दोनों ही पाठों में ऐसा कोई श्लोक नहीं है। स्वामी दयानन्द ने संभवतः अपने झूठ को प्रमाणिक सिद्ध करने हेतु इस श्लोक को स्वयं बनाकर भोज प्रबन्ध के नाम पर लिख दिया।
अब समझिए कि स्वामी दयानन्द को महाभारत के विषय में यह झूठ बोलने की आवश्यकता क्यों थी? वे क्यों चाहते थे कि महाभारत के श्लोकों की संख्या 20 से 24 हजार तक ही समझी जाए, और बाकी महाभारत को गलत समझा जाए?
इसका पहला कारण था कि उस समय ईसाई विद्वानों की लगभग यही मान्यता थी। दूसरा कारण था कि स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म के नाम पर जो भी सिद्धान्त प्रस्तुत कर रहे थे और उन सिद्धान्तों को लेकर दावा करते थे कि उनके धार्मिक सिद्धान्त वैदिक और प्राचीन हैं, महाभारत से उनके वे सभी सिद्धान्त नवीन और झूठे सिद्ध हो जाते थे। वे जिन मूर्तिपूजा, अवतारवाद, ईश्वर के शिव, विष्णु, ब्रह्मा आदि स्वरूपों, शिवलिंग उपासना सहित सनातन वैदिक धर्म के सभी अंगों का पुरजोर विरोध करते थे, वे सब के सब महाभारत से सिद्ध होते थे। स्वामी दयानन्द के सामने महाभारत के रूप में एक बड़ी बाधा थी। उनकी विवशता यह थी कि वे महाभारत ग्रन्थ को भी पुराणों की भाँति नकार नहीं सकते थे, क्योंकि ऐसा करने पर भारतीय समाज उन्हें ही नकार देता। दूसरा, फिर वे श्रीकृष्ण आदि को भी नहीं मान पाते और इस तरह हिन्दुओं के बीच उनका महत्व ही समाप्त हो जाता। इसलिए स्वामी दयानन्द ने यह चाल चली कि एक ऐसे ग्रन्थ की कल्पना राजा भोज के नाम पर की, जो था ही नहीं, और उससे महाभारत में बहुत बड़ी संख्या में प्रक्षेप होने का दावा किया। भोज प्रबन्ध नाम के ग्रन्थ से एक फर्जी श्लोक बनाकर रच दिया और एक-दो झूठे तर्क प्रस्तुत किए।
उनके बाद यही कार्य आर्यसमाजियों ने किया। स्वामी जगदीश्वरानन्द ने वर्तमान समय में एक बड़ी चतुराई दिखाई। उन्होंने हिन्दुओं के ग्रन्थ महाभारत, जिसमें लगभग एक लाख श्लोक हैं, उसमें से मात्र 16,000 श्लोक निकाले और उन्हें “सम्पूर्ण महाभारत” के नाम से छाप दिया। उन्होंने कहा कि बाकी के श्लोक झूठे हैं। सोचिए, आर्यसमाजियों ने लगभग 90,000 महाभारत के श्लोकों को झूठा और फर्जी कहकर नकार दिया और आर्यसमाज के मत के विरुद्ध न जाने वाले 16,000 श्लोकों को सही मानकर आर्यसमाज की एक अलग महाभारत बना ली। ताकि वे कह सकें कि महाभारत में कृष्ण का चरित्र ऐसा था, अर्थात् श्रीकृष्ण के स्वरूप को विकृत कर सकें, ताकि वे महाभारत के नाम पर मूर्तिपूजा, अवतारवाद आदि को नकार सकें। सोचिए, कितनी बड़ी नीचता है यह। अपने पंथ के सिद्धान्तों की सिद्धि के लिए और हिन्दुओं को भ्रमित करने के लिए शास्त्र को विकृत करने, शास्त्र को काटने का ऐसा दुष्टतापूर्ण उदाहरण आपको इतिहास में दूसरा कोई नहीं मिलेगा। मुसलमानों द्वारा ग्रन्थों को जलाया जाना और आर्यसमाजियों द्वारा ग्रन्थों की इस प्रकार हत्या किया जाना, दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है।
किन्तु ऐसा नहीं है कि सभी आर्यसमाजी ऐसे ही रहे हैं। आर्यसमाज में कुछ बड़े गम्भीर विद्वान भी हुए हैं। यद्यपि उनसे भी कई विषयों पर हमारा मतभेद ही होगा, तथापि यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि उनका अध्ययन बहुत दीर्घकालिक और गम्भीर था। उनमें सनातन धर्म के प्रति, शास्त्रों के प्रति कम से कम इतनी निष्ठा तो थी कि वे हर चीज को दयानन्द के चश्मे से न देखकर सत्य को देखते थे।
स्वामी दयानन्द ने अपना उत्तराधिकारी परोपकारिणी सभा को बनाया था। पण्डित भगवद्दत्त, जो विशेष विद्वान थे, आर्यसमाज की उच्च संस्था ‘परोपकारिणी’ के निर्वाचित सदस्य थे। वे इसकी ‘विद्वत-समिति’ के भी सदस्य थे। उन्होंने लगभग 20 वर्षों में 7,000 हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह तथा अध्ययन किया था। महाभारत केवल व्यास जी की रचना है या अनेक लोगों की, महाभारत में कितने श्लोक हैं, इस पर उन्होंने अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का बृहद् इतिहास’ में एक शोध लिखा है। उसे ऐसा का ऐसा प्रस्तुत कर रहे हैं। आर्यसमाज के पण्डित भगवद्दत्त ने अनेक प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि महाभारत में लगभग एक लाख श्लोक थे और वह अकेले वेदव्यास जी की ही रचना है। उनके लेख को पढ़ें:
“गत पाँच सहस्र वर्षों के उद्भट विद्वान महाभारत संहिता को कृष्ण द्वैपायन व्यास की कृति मानते आए हैं। … पाश्चात्य लेखकों ने इसी कारण कृष्ण द्वैपायन के अस्तित्व को नष्ट करने का प्रयास किया। भयभीत रैपसन अपने पाश्चात्य गुरुओं की प्रतिध्वनि करता है, अर्थात् कहता है – ‘महाभारत का लिखने वाला एक पुरुष नहीं, एक वंश नहीं, परन्तु अनेक व्यक्ति व वंश हैं।’
ईसाई पक्षपातान्ध लोगों के अतिरिक्त ऐसे कथन और कोई नहीं कर सकता था। जिस ग्रन्थ को रामानुज, शंकर, कुमारिल, जज्जट, शबर, भट्टार, हरिचन्द्र, वररुचि, बौधायन, पाणिनि, आश्वलायन और शौनक आदि कृष्णद्वैपायन की कृति मानते हैं, उसकी अप्रमाणिकता के सम्बन्ध में लेख त्याज्य है। जिन वैशम्पायन और सौति आदि का महाभारत संहिता में थोड़ा-सा भाग है, वे सब व्यास के साक्षात् शिष्य थे। वे संस्कृत के अद्वितीय पण्डित थे।”
“महाभारत तथा भारत ग्रन्थ कृष्णद्वैपायन वेदव्यास की कृति है, और इसका वर्तमान आकार-प्रकार गत पाँच सहस्र वर्षों में कुछ अधिक विकृत नहीं हुआ। हाँ, कहीं-कहीं श्लोकों या अध्यायों में किंचित् न्यूनाधिक्य या पाठान्तर तो हुए हैं, परन्तु मूल कथा तथा प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री परिवर्तन का पात्र नहीं बनी है। यही हमारी प्रतिज्ञा है, और इसके प्रमाण नीचे लिखे जाते हैं:
- संवत् 1087 के समीप का संस्कृत-विद्या का अध्ययन करने वाला मुसलमान ऐतिहासिक अलबरूनी लिखता है – ‘महाभारत के 18 पर्वों में 1,00,000 श्लोक हैं।’ इससे ज्ञात होता है कि अलबरूनी के काल में महाभारत ग्रन्थ की स्थिति लगभग वर्तमान काल के समान थी।
- संवत् 1057 के लगभग होने वाला शैवशास्त्र का अद्वितीय विद्वान तथा भरत-मुनि के नाट्यवेद का व्याख्याकार आचार्य अभिनव गुप्त लिखता है कि महाभारत शास्त्र में शतसहस्र श्लोक थे।
- संवत् 977 के समीप माधवप्रणीत शिशुपाल वध पर टीका लिखने वाला वल्लभदेव महाभारत का श्लोक परिमाण सपादलक्ष (1,00,000) से अधिक मानता है।
- संवत् 957 के समीप का राजशेखर अपनी काव्य-मीमांसा में भारत संहिता को शतसाहस्त्री कहता है।
- ध्वन्यालोक वृत्ति में आनंदवर्धनाचार्य (8वीं सदी) महाभारत के गृध्र-गोमायुसंवाद का उल्लेख करते हैं और वह अनुक्रमणी और हरिवंश को महाभारत का भाग मानता है। वह महर्षि व्यास के नाम से आदि पर्व का श्लोक उद्धृत करता है।
- कलिसंवत् से 3740 से पूर्व का अथवा संवत् 687 के समीप का ऋग्वेदभाष्यकार आचार्य स्कन्द स्वामी अपने भाष्य में भारतान्तर्गत अनेक आख्यानों का निर्देश करता है।
- श्रीहर्षवर्षण की राजसभा को सुशोभित करने वाले गद्यकवि भट्टबाण ने कादम्बरी और हर्षचरित दो ग्रन्थ रत्न लिखे थे। यह दोनों ग्रन्थ महाभारत की अनेक सरस कथाओं और घटनाओं से भरे पड़े हैं। हर्षचरित के आरम्भ में भट्टबाण ने स्पष्ट लिखा है कि भारत का रचयिता व्यास था। हर्षचरित में शान्तिपर्व 27.38 उद्धृत है। हर्षचरित और कादम्बरी ग्रन्थ संवत् 680 के पश्चात् के नहीं हैं।
- लगभग इसी काल का व्याकरण काशिकाकार जयादित्य अपनी काशिका वृत्ति में महाभारत शान्तिपर्व के श्लोक क्रमशः 1.1.11 तथा 5.4.122 उद्धृत करता है। काशिकाकार जयादित्य महाभारत के नाम से भी परिचित था।
- शंकराचार्य आरण्यक पर्व से ‘अथ सत्यवतः कायात्’ श्लोक उद्धृत करते हैं। ब्रह्मसूत्र भाष्य में शंकर ने शान्तिपर्व 238.93 उद्धृत करते हैं। शंकर भी वेदव्यास को ही महाभारत का कर्ता मानते थे।
शंकर वेदव्यास से अच्छे प्रकार परिचित थे। भारत के वे प्रकाण्ड पण्डित अणुमात्र भी संदेह नहीं करते थे कि महाभारत ग्रन्थ वेदव्यास रचित नहीं है। शंकर के सम्मुख पक्षपाती ईसाई लेखकों के कथनों का कोई मूल्य नहीं है।
- संवत् 647 के समीप अथवा उसके कुछ पहले मीमांसा-वार्तिकों के लिखने वाले बौद्धमत-विध्वंसक भट्ट कुमारिल भी महाभारत के अनेक श्लोक उद्धृत करते हैं और महाभारत का एक श्लोक उद्धृत करते हुए वह इसे पाराशर्य (वेदव्यास जी) की ही कृति मानता है।
- दिग्गज बौद्ध विद्वान धर्मकीर्ति भी भारत की रचना में अपने काल के लोगों की अशक्ति (असमर्थता) मानता है। कस्यचित् के एकवचन प्रयोग से धर्मकीर्ति स्पष्ट करता है कि महाभारत का कर्ता एक व्यक्ति था। वह अनेक लोगों को इसका कर्ता नहीं मानता और पाश्चात्य लोगों के सिर पर खड़ा ललकारता है कि – हे पाश्चात्य के विद्वानों, तुम इतना अनृत क्यों फैला रहे हो?
- इससे कुछ पूर्वकाल का काव्यालंकारसूत्र प्रणेता भामह महाभारत वर्णित अनेक कथाओं का उल्लेख अपने ग्रन्थ में करता है। भामह के श्लोक स्कन्द के निरुक्त-भाष्य में उद्धृत हैं।
- संवत् 627 से पूर्ववर्ती शब्दब्रह्मवादी वाक्यपदीय का कर्ता महावैयाकरण भर्तृहरि भी महाभारत के कई श्लोक उद्धृत करता है। एक स्थान पर उसने आश्वमेधिक पर्व के कई श्लोक उद्धृत किए हैं। इससे ज्ञात होता है कि भर्तृहरि के काल में आश्वमेधिक पर्व के वे स्थल विराजमान थे।
- वाग्भट के शिष्य जज्जट चरक, चिकित्सा स्थान 2.4 की व्याख्या में लिखता है – “आह च व्यासभट्टारकः – पुत्रजन्मवियोगाभ्यां न परं सुखदुखयोः इति।” अतः जज्जट व्यास और महाभारत से परिचित थे।
- मध्यभारत के उच्चकुल के महाराज सर्वनाथ के ताम्रपत्र में महाभारत के एक लाख श्लोक माने गए हैं। महाराज सर्वनाथ के शिलालेख संवत् 191-214 तक के मिल चुके हैं।
अतः इन प्रमाणों से महाभारत का वर्तमान स्वरूप विक्रम से लगभग 2600 वर्ष पहले का सिद्ध होता है। और प्राचीन से प्राचीन ग्रन्थकार महाभारत को व्यास की रचना मानते आए हैं।
इनसे पूर्वकाल का मीमांसाभाष्यकार शबर अपने भाष्य में महाभारत आदिपर्व 1.49 को उद्धृत करता है और बताता है कि महाभारत के महान् ज्ञान का विस्तारपूर्वक वर्णन करके ऋषि वेदव्यास ने इसकी संक्षिप्त अनुक्रमणी बनाई।
इस प्रमाण को उद्धृत करने से शबर मानता है कि ऋषि व्यास ने ही महाभारत का अनुक्रमणीपर्व बनाया। अनुक्रमणी के अनुसार महाभारत की श्लोक-गणना लगभग वर्तमान काल की श्लोक-गणना के सदृश थी। अतः शबर से कई सौ वर्ष पहले भी महाभारत ग्रन्थ में लगभग एक लाख श्लोक थे।
शबरस्वामी का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी से पूर्व का है। सम्भवतः वह प्रथम शताब्दी विक्रम का ग्रन्थकार था।
अब विचारने का स्थान है कि शबरस्वामी, जो आर्यवाङ्मय की सर्वसम्मत परम्परा से परिचित था, अपने काल में अनुक्रमणी सहित सारे महाभारत को ऋषिव्यास की कृति मानता था। यह परम्परा उसके काल तक थी। इस बात के सामने ईसाई लेखकों की पक्षपातपूर्ण कल्पनाओं को कौन विद्वान मानेगा? (आर्यसमाज के पण्डित भगवद्दत्त को यह लिखते समय क्या पता था कि आगे चलकर आर्यसमाजी ही ईसाइयों की इस पक्षपातपूर्ण कल्पना को आगे बढ़ाएँगे?)
- शबर मीमांसक था और दुर्ग नैरुक्त। दोनों विक्रम की प्रथम शताब्दी के समीप के ग्रन्थकार हैं। उन दोनों को भारतीय परम्परा ठीक ज्ञात थी। इन दोनों ने ही महाभारत के अनेक श्लोक उद्धृत किए हैं। यह अनुक्रमणीपर्व विषयक श्लोक है। आचार्य दुर्ग का महाभारत से उद्धृत किया हुआ एक श्लोक बताता है कि युद्ध काण्ड की अवस्था में कोई अन्तर विशेष नहीं हुआ।
दुर्ग का मत है कि निरुक्तकार यास्क आख्यान सहित भारतसंहिता को जानता था। यदि दुर्ग का यह मत सत्य सिद्ध हो जाए, तो मानना पड़ेगा कि महाभारत का वर्तमान आकार-प्रकार भारतयुद्ध के 100 वर्ष के अन्दर बन चुका था। यास्क और व्यास लगभग एक काल के थे।
- वाररुचि निरुक्तसमुच्चय नाम का एक ग्रन्थ मिलता है। उसमें वेद मन्त्रों का विवरण है। वररुचि की कृति होने से यह ग्रन्थ प्रथम शताब्दी विक्रम की रचना है। यह वररुचि सुप्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य का पुरोहित था। उसके ग्रन्थ में महाभारत के कई श्लोक उद्धृत हैं। वह निरुक्तसमुच्चय में महाभारत का श्लोकार्ध उद्धृत करके उसे व्यासवचन मानता है।
अर्थात् आज से दो हजार वर्ष पूर्व के भारत के वररुचि जैसे विद्वान सम्पूर्ण महाभारत का कर्ता व्यास जी को मानते थे। उनके काल तक भारतीय परम्परा अटूट थी, अतः उनका मत कल्पित मत न था।
- बृहत्कथा के लेखक गुणाढ्य ने भी महाभारत के अनेक आख्यानों का कथन किया है, जो कि महाभारत में ही मिलते हैं। बृहत्कथा अठारह लम्बकों और कई लाख श्लोकों में रची गई थी। गुणाढ्य ने व्यास का अनुकरण करते हुए महाभारत के अठारह पर्वों के अनुसार अपने ग्रन्थ में अठारह लम्बक रखे थे। गुणाढ्य विक्रम से पूर्वकालीन था।
- भदन्त अश्वघोष बौद्धों के महायान सम्प्रदाय का प्रकाण्ड पण्डित था। उसका काल विक्रम की पहली शताब्दी से पूर्व का है। उसके दोनों महाकाव्यों का पाठ निश्चय करता है कि उसके काल में महाभारत ग्रन्थ की स्थिति लगभग वर्तमान काल जैसी ही थी।
- जैन सम्प्रदाय में उत्तराध्यायन नाम का एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। भद्रबाहु ने इसमें कई श्लोक महाभारत शान्तिपर्व (282.4, 176.56) से उद्धृत किए हैं।
- मृच्छकटिक प्रकरण का कर्ता शूद्रक, जो विक्रम संवत् से कई सौ वर्ष पूर्व का है, अपने प्रकरण में महाभारत के इतिवृत्तों की ओर बहुधा संकेत करता है। वह आर्य राजा विद्वान था और उसे महाभारत सम्बन्धी पूर्ण ज्ञान था। अतः विक्रम से कई सौ वर्ष पहले भी महाभारत का आकार वर्तमान काल के महाभारत के बराबर था।
- पतंजलि का एक नाम शेष कहा जाता है। शेष रचित एक कोश ग्रन्थ कभी बड़ा प्रसिद्ध था। सम्भवतः यह कोशग्रन्थ इसी पतंजलि का था। शेष के कोश में अर्जुन आदि के नाम पर्याय पढ़े गए हैं। इन पर्यायों में महाभारत में प्रयुक्त अनेक नाम-पर्याय मिल जाते हैं। अतः महाभारत पतंजलि से बहुत काल पूर्व वर्तमान आकार का था। स्मरण रहे, पतंजलि का काल विक्रम से 1100-1200 वर्ष पूर्व तक का है।
- आयुर्वेद की चरक संहिता का तीसरा अध्याय दृढ़बल की पूर्ति से पूर्वकाल का है। यह अध्याय पतंजलि से भी पहले का है। उसमें लिखा है – “विष्णुं सहस्रमूर्धानं चराचरपतिं विभुं…”
इस पर चक्रपाणि आदि टीकाकारों ने लिखा है कि ये सहस्रनाम महाभारत में हैं। जब चरक के प्रतिसंस्कार के समय महाभारत ग्रन्थ में विष्णुसहस्रनाम विद्यमान था, तो उस समय महाभारत का कलेवर वर्तमान काल जैसा ही था।
- बौधायन के सम्मुख महाभारत ग्रन्थ विद्यमान था। उसके काल में और उसके सहस्रों वर्ष पश्चात् भी भारतीय इतिहास की परम्परा अटूट थी। वह महाभारत के आदिपर्व को उसके आख्यानों को जानता था। अतः विक्रम से 2750-2800 वर्ष पहले महाभारत लगभग अपने वर्तमान स्वरूप में विद्यमान था।
इस प्रकार इन सब प्रमाणों से हम देख सकते हैं कि अलबरूनी से महाराज विक्रम तक और विक्रम से लेकर उससे 2800 वर्ष पूर्व तक, अर्थात् शौनक के काल तक, भारतवर्ष के धुरंधर आचार्य महाभारत के भिन्न-भिन्न पर्वों के श्लोक अपने ग्रन्थों में उद्धृत कर रहे हैं। वे कृष्ण द्वैपायन और महाभारत से परिचित थे। महाभारत के आदिपर्व के श्लोकों का प्रमाण दुर्ग, शबर, और योगसूत्रभाष्यकार व्यास ने दिया है। व्यास का भारत ग्रन्थ कौरव-पाण्डव युद्ध के 150 वर्ष पश्चात् ही महाभारत के नाम से प्रख्यात हो चुका था और उसका रूप महाभारत के वर्तमान स्वरूप जैसा ही था।”
अब आप इन सब प्रमाणों से स्पष्ट समझ सकते हैं कि जो महाभारत वर्तमान समय में उपलब्ध है, यही आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व भी ऐसा ही था। इन प्रमाणों को कोई नहीं काट सकता। ये अकाट्य प्रमाण एक आर्यसमाजी द्वारा ही दिए गए हैं, जिसने हजारों पाण्डुलिपियों को पढ़ा और बीसियों वर्ष तक शोध किया। क्या आर्यसमाजी इस सत्य को स्वीकार करेंगे? नहीं स्वीकार करेंगे, क्योंकि समस्या वही आ जाती है। महाभारत के सत्य स्वरूप को स्वीकारने पर इनकी मान्यताएँ खण्डित हो जाती हैं। इनके लिए महर्षि वेदव्यास या शास्त्रों के वचन महत्व नहीं रखते। इनके लिए अन्तिम प्रमाण केवल और केवल स्वामी दयानन्द ही हैं, चाहे उनके झूठ और अवैदिक मान्यताएँ प्रत्यक्ष ही क्यों न दिख रही हों। फिर उस झूठ को सत्य सिद्ध करने के लिए यह लोग अन्य शास्त्रों का दुरुपयोग करते हैं, जैसे कि श्लोक लिखकर मनमाना अर्थ लिख देना, प्रकरण को छिपाकर श्लोक का भाव अपने अनुसार लिखना। इसके उदाहरण पूर्व के लेखों में भी दिए जा चुके हैं।
आर्यसमाजियों को विचार करना चाहिए कि बिना किसी ठोस प्रमाण के, झूठ और छल को आधार बनाकर, अपने ही एक ऋषिकृत ग्रन्थ महाभारत के लगभग 90,000 श्लोकों को नकारकर क्या वे ईसाई विद्वानों के मत का प्रचार नहीं कर रहे हैं? आर्यसमाजियों को विचार करना चाहिए कि पाँच हजार वर्षों में क्या रामानुज, शंकर, कुमारिल, जज्जट, शबर, भट्टार, हरिचन्द्र, वररुचि, बौधायन, पाणिनि, आश्वलायन और शौनक जैसे अनेक विद्वान क्या सब के सब झूठे थे या अविद्वान थे, जो कि सबने महाभारत को ऐसा का ऐसा स्वीकार किया और अकेले वेदव्यास जी की रचना माना? इन 5000 वर्षों में सनातन धर्म की परम्परा में ऐसा कोई विद्वान और आचार्य नहीं हुआ है, जिसने महाभारत के वर्तमान स्वरूप को ऐसा का ऐसा स्वीकार न किया हो। तब आर्यसमाजी किसके पक्ष में खड़े हैं? महाभारत को नकारने का पाप केवल और केवल स्वामी दयानन्द ने किया। क्या दयानन्द आपके लिए ईश्वर हैं कि उनकी हर गलती को मानने के लिए आप बाध्य हैं, चाहे इसके लिए आपको अपने ही शास्त्रों और ऋषियों-विद्वानों के विरोध में ही क्यों न खड़ा होना पड़े? अतः अपने पूर्वजों को देखें, वे क्या मानते थे। अपने ऋषियों के विरोध में, अपने शास्त्रों के विरोध में, सनातन धर्म की परम्परा के विरोध में खड़े होकर निश्चित जानें कि आपको कुछ प्राप्त नहीं होगा।